भारत के राष्ट्रीय महात्माओं की परंपरा में आते हैं | अपने जीवन काल में अनेक लीलाएँ करते हुए, आपने अपने भक्तों के कल्याण के लिए श्री हनुमान जी की आराधना का मार्ग प्रशस्त किया | आपने अपने लिए न किसी आश्रम की स्थापना की और न ही कोई अनुयायी भक्त मंडली ही तैयार की , उनके आश्रम श्री हनुमान जी के सेवार्थ उनके भक्तों के लिए समर्पित हैं | इन आश्रमों में श्री महाराज जी आज भी सदा विराजमान रहते हैं और प्रत्यक्ष रूप से अपने भक्तों को अनेक अनुभूतियों से अभिभूत भी करते रहते हैं |
बाबा नीब करोरी बीसवीं सदी के ऐसे संत थे, जो कभी भक्तों को अपने पीछे न दौड़ाकर भक्तों के सुख दुःख को बांटने हेतु उनके पीछे दौड़ते थे | वे किसी भी राजनेता , महंत एवं उद्योगपति को उनकी अहंता ममता से दूर करके ही उसे श्री हनुमान जी का भक्त बनाकर अपनाते थे | बचपन से ही आपने अपने अंतः करण में श्री हनुमत शक्ति का स्फुरण होने के कारण विरक्ति का मार्ग अपनाया था | इस तथ्य को प्रमाणित करने की कोई आवश्यकता नहीं है |
बाबा नीब करौरी महाराज जी का जन्म सन् 1900 में फिरोजाबाद ( पूर्व में आगरा जिला ) के अकबरपुर गाँव में मार्गशीष शुक्लपक्ष की अष्टमी को एक संपन्न जमींदार ब्राह्मण परिवार में हुआ था | जन्म के समय ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की की थी कि आप पर सदैव माँ लक्ष्मी जी की कृपा बनी रहेगी | आपको कभी धन का आभाव नहीं रहेगा, भले ही आप जंगल में क्यों न रहें |
बाबा नीब करौरी महाराज (पूर्व नाम पं. लक्ष्मीनारायण शर्मा) के पिता श्री दुर्गा प्रसाद एवं माता श्रीमती कौसल्या देवी बहुत ही सरल, सहज एवं संस्कारित आस्थावान ब्राह्मण थे | आपकी माता का निधन आपके बाल्यकाल में ही हो गया था |
उस समय आपकी अवस्था लगभग आठ से नौ वर्ष ही थी | भगवान की लीला के अनुसार विमाता के आगमन के बाद महाराज जी का सान्निध्य और संपर्क उनके साथ अधिक समय तक नहीं रह सका | माँ का सौतेला व्यवहार ही श्री महाराज गृह त्याग का कारण बना |
महाराज जी का विवाह लगभग ग्यारह वर्ष की अवस्था में गाँव बादाम बास निवासी लक्ष्मी स्वरूपा शुभश्री राम बेटी के साथ हुआ | कुछ ही समय में सौतेली माँ के असत्य व्यवहार के कारण लगभग तेरह वर्ष की अवस्था में आपने घर का परित्याग कर दिया और लगभग दस वर्ष के पश्चात् आपका पुनः प्राकट्य बाबा नीब करौरी महाराज के रूप में हुआ | इन नौ – दस वर्षों में महाराज जी कहाँ कहाँ रहे बहुत अधिक सुनिश्चितता से कुछ नहीं कहा जा सकता, परन्तु अनेक तथ्यों के अनुसार निम्नलिखित जानकारी मिलती है |
पहले आप राजस्थान गये वहां से आप राजकोट , गुजरात पहुँचे | वहां आपसे अतिप्रसन्न होकर महंतश्री ने आपको अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। यह बात उन महंत श्री के बाकी भक्तों को कुछ नागवार गुज़रा | आपने विवाद से बचने के लिए वह जगह छोड़ दी | यहीं आप “ बाबा लक्ष्मण दास ” के नाम से जाने गये | उसके पश्चात आप बबनिया मोरबी गाँव गुजरात पहुंचे | यहाँ आपने एक तालाब में रमाबाई आश्रम के निकट अपनी कठिन साधना जारी रखी | आप घंटों तालाब के अंदर बैठकर ध्यान लगाया करते | वहां आप “ तलैया बाबा ” के नाम से जाने गए |
कुछ समय तक बबनिया रहने के पश्चात आपने बबनिया को भी छोड़ दिया और आप घूमते घूमते नीब करौरी गाँव जिला फर्रुखाबाद (उत्तर प्रदेश) आ पहुंचे | महाराज जी कि वाणी दिव्य थी यद्यपि आपका गाँव वालों से बहुत कम संपर्क एवं बोलचाल थी किन्तु महाराज जी जो भी कहते, वह सच हो जाता था |
धीरे धीरे गाँव वालों का उनसे लगाव हो गया और उन्होंने महाराज जी को गाँव में रुकने के लिए मना लिया | गाँव वालों ने उनके लिए एक ज़मीन के अंदर गुफा बना दी । महाराज जी उसी गुफा के अंदर श्री हनुमान जी की कठिन साधना किया करते थे | उनको कभी किसी ने बाहर निकलते नहीं देखा यहाँ तक कि गाँव वालों ने उन्हें अपने दैनिक कार्य कलापों के लिए भी कभी निकलते नहीं देखा | गुफा में बिना आज्ञा प्रवेश करने की सख्त मनाही थी | कुछ समय पश्चात पुरानी गुफा से लगभग दो सौ मीटर की दूरी पर गाँव वालों ने गोवर्धन नामक ब्राह्मण की बंजर भूमि पर एक नई गुफा का निर्माण करा दिया | महाराज जी ने उस गुफा के अन्दर गंगा माटी से निर्मित श्री हनुमान जी का विग्रह स्थापित किया | श्री हनुमान जी के स्वरूप की प्राण प्रतिष्ठा के समय आपने अपनी जटाएं भी त्याग दी और लंगोट की जगह आपने धोती धारण कर ली | नई गुफा में आने के पश्चात् आपने गाँव वालों के साथ अधिक आध्यात्मिक चर्चा प्रारम्भ कर दी और गांव के सामाजिक उत्थान के लिए कई कार्य भी शुरू किये गये | आप यहाँ “ लक्ष्मण दास बाबा ” से “ बाबा नीब करौरी ” के रूप में प्रसिद्द हो गए
आपने यहाँ अनेक प्रकार की लीलाएँ कीं। जिनमे रेलगाड़ी को रोक देना , खारे पानी के कुँए को मीठे पानी में बदल देना आदि प्रमुख हैं | लगभग अठारह वर्ष नीब करौरी में रहने के पश्चात् कुछ अपरिहार्य कारणों से आपने नीब करौरी छोड़ दिया | नीब करौरी छोड़ने के पश्चात आप कुछ समय गंगा नदी के किनारे किला घाट जिला फ़तेहगढ़ में रहे | यहाँ पर गायों की सेवा काल में देखा गया कि वे गायें महाराज जी के आदेश का पालन करती थी | यहाँ अपने निवास के दौरान आपने कई फौजी अफसरों को दर्शन एवं आशीर्वाद, दिया जिनमें कर्नल मैकन्ना प्रमुख भक्त थे जो कि पूर्व में नास्तिक थे |
गंगा तट किलाघाट छोड़ने के पश्चात् आप कई जगह घूमते रहे | इस विषय में कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता है | अनुमानतः इस दौरान आप बरेली , हल्द्वानी , अल्मोड़ा , नैनीताल , कानपुर , वाराणसी , लखनऊ , इलाहबाद , वृंदावन , शिमला , मद्रास कहाँ कहाँ नहीं गये और अपने भक्तों के संपर्क में आये | बिना किसी प्रचार के आपके सभी जातियों और धर्मों हिन्दू , मुस्लिम, सिख, ईसाई वर्ग के बहुत सारे भक्त बन गए |
13. वी. वी . गिरी ( भूतपूर्व राष्ट्रपति ) , गोपाल स्वरुप पाठक ( भूतपूर्व उप राष्ट्रपति ), जस्टिस वासुदेव मुखर्जी, जुगल किशोर बिरला, सुमित्रा नंदन पंत, मंगतू राम जयपुरिया, रामदास, कृष्णदास, लेरी ब्रिलियंट आदि कुछ और भी नाम हैं जिन्होंने महाराज जी के दर्शन किये और आशीर्वाद प्राप्त किया | इस परंपरा में अनेक उच्च अधिकारी, डॉक्टर, राजनीतिज्ञ, प्रोफ़ेसर, उद्योगपति भक्त महाराज जी के संपर्क में आये और आशीर्वाद प्राप्त किया |
सन् १९४० के पश्चात आपने अपना अधिकतर समय नैनीताल क्षेत्र एवं वृंदावन में व्यतीत करना आरम्भ कर दिया | सन् १९५० में महाराज जी ने हनुमानगढ़ी में श्री हनुमान जी के मंदिर की स्थापना की | उसके पश्चात लगभग दो दशकों में आपने अनगिनत मंदिरों एवं आश्रमों की स्थापना की जिनमें नीब करौरी , भूमियाँधार, कैंची , वृंदावन , काकड़ीघाट , कानपुर , लखनऊ , दिल्ली , शिमला आदि प्रमुख हैं |
सन् १९५० से लेकर अपनी महासमाधि तक वे कभी भी एक स्थान पर अधिक समय तक नहीं रहे | अपनी ख्याति और यश के प्रति सदा उदासीन श्री महाराज जी ने इन मंदिरों और आश्रमों में कहीं अपना नाम नहीं आने दिया । सभी मंदिरों और आश्रमों को हनुमान जी के नाम से निर्माण कराने के उपरांत उनकी समुचित व्यवस्था कर विभिन्न स्थानीय न्यासों को सोंपते चले गये। सर्वथा अपने को तटस्थ रखते हुए उन्होंने यह महत्कार्य किया । आश्रमों का विस्तार तो उनके भक्तों ने आपकी महासमाधि के पश्चात किया और मंदिरों एवं आश्रमों से श्री महाराज जी का नाम भी इसी श्रद्धा और विश्वास की भावना से जुड़ गया |
श्री महाराज जी सदैव वसुधैव कुटुंबकम् में विश्वास रखा करते थे | सम्पूर्ण विश्व उनका घर था | सभी प्राणी उनके बच्चे जैसे थे | महाराज जी ने ११ सितंबर सन् १९७३( भाद्र शुक्ल पक्ष अनन्त चतुर्दशी) के दिन भगवान श्री कृष्ण की लीलास्थली श्री वृंदावन धाम में पूर्व नियोजित योजना के अनुरुप महासमाधि ले अपनी भौतिक लीलाओं को विराम दे दिया |
यद्यपि महाराज जी ने भौतिक रूप से भले ही समाधि ले ली हो, परन्तु वह आज भी सैकड़ों घटनाएँ ऐसी है कि वे अपने भक्तों को जब जब कष्टों या आपदाओं से घिरा देखते हैं तो सहज ही किसी न किसी रूप में दौड़े चले आते है | आज भी वे उसी तरह अपने भक्तों की रक्षा करते हैं जैसे अपने जीवन काल में किया करते थे |
महाराज जी के समकालीन एवं आज के सभी संत तथा विद्वान उन्हें साक्षात् हनुमान जी का ही अवतार मानते हैं, वह आज भी जीवित हैं और सदा जीवित रहेंगे |
महाराज जी कहते हैं कि “तुम हमसे प्रेम करते हो तो हम भी तुमसे प्रेम करते हैं तभी हम तुमसे मिलते हैं |
महाराज जी कभी किसी भी प्रकार के आडंबर में विश्वास नहीं करते थे ।महाराज जी ने कभी भी भाषण या प्रवचन नहीं दिया । इसे वह भाषा का खिलवाड़ मानते रहे। आग्रह करने पर भी आप यह कहकर टाल देते कि हम पढ़े लिखे नहीं हैं। इस प्रकार उन्होंने जन समुदाय के बीच रहते हुए आज के आधुनिक वातावरण मैं मानवता के उच्च मूल्यों को स्वयं आपने आचरण के द्वारा स्थापित किया ओर उन्हें व्यावहारिक रूप दिया जिससे लोगों मैं जागृति उत्पन्न हुई । उनके द्वारा प्रस्तुत आचरण एवं व्यवहार शिक्षाप्रद ही नहीं वरन जन साधारण के अनुकरण करने योग्य है ।
यद्यपि महाराज जी अपने आप को गुरु रूप में मान्यता दिए जाने को नकारते रहे , फिर भी उनके भक्तों ने उनकी पूजा – अर्चना , प्रार्थना – आरती ,आदि उनको सदा सदगुरु रूप मैं मानकर की —— ओर आज भी यही करते हैं । महाराज जी भी अपने भक्तों के प्रति अपने मातृ, पितृ, सखा, बंधु, आदि भावों के साथ साथ आपने गुरु-स्वरूप का भी निर्वाह प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप मैं करते रहे । महाराज जी अपने भक्तों को सूक्त रूप मैं ज्ञान प्रदान कर, उनका योगक्षेम वहन कर, उनकी सांसारिक समस्याओं का निदान कर उनकी उलझनों एवं शंकाओं का निवारण करते रहे।
महाराज जी विभिन्न रूपों में अक्सर अपनी भावनाओं का ही का एक प्रतिबिंब है जो की जैसा हम विचार करते है उसी के अनुसार उसी रूप मैं दिखाई जान पड़ते है |कभी परिवार के किसी सदस्य के रूप मैं या कभी एक श्रद्धेय शिक्षक के रूप में। महाराज जी के रूप में एक व्यक्ति इस ब्रम्हांड मैं कइयों के लिए राम रूप मैं ,कइयों के लिए देवी दुर्गा के रूप में कई लोग उनको सर्व शक्तिशाली हनुमान का अवतार मानते है । स्वामी करपात्री महाराज कहते है कि ” इस कलयुग मैं कई विद्वान संतों ने जन्म लिया , लेकिन कोई भी बाबा नीब करोरी के जितना प्रबुद्ध नहीं ।
स्वामी चिदानंद , डिवाइन लाइफ सोसायटी और श्री शिवानंद आश्रम के अध्यक्ष, महाराज जी के लिए कहते है कि “उत्तरी भारत के एक महान आश्चर्य रहस्यवादी संत ।” महाराज जी कहते हैं कि लोगों को मेरी सच्चाई जानने के लिए मेरे शरीर से एक एक बाल को नोचना होगा और ताबीज़ बनाना होगा |महाराज जी ने , हालांकि, अपनी दिव्यता को हमेशा छुपा कर रखा । अकबरपुर और नीब करोरी के गांव् ( उत्तर प्रदेश ) के आधे से ज्यादा एक सदी के लिए उसकी लीला के क्षेत्रों थे फिर भी,अपने पैतृक अकबरपुर के निवासियों के लिए वे श्री लक्ष्मी नारायण शर्मा थे इससे ज्यादा वे उनके बारे मैं बहुत कुछ ज्यादा नहीं जानते थे |
महाराज जी के पास जो कोई भी धैर्य और खुले मन से बिना किसी निश्चित धारणा के आता था वही उनकी झलक पा पाता था । फिर भी यह सब खुद महाराज जी पर ही निर्भर था । किसी को भी दर्शन अधिकार रूप मैं नहीं बल्कि प्रसाद रूप मैं ही प्राप्त हो सकता था । कई बार लोग उनके पास श्रृद्धा भाव से न आकर परिच्छा लेने के भाव से आते थे ऐसे श्रद्धालुओ के सामने महाराज जी अपना व्यवहार जान बूझ कर बदल लेते थे। महाराज जी की कुछ बातें बड़ी अदभुत थी वे कभी कभी गृहस्थ की भांति आचरण करते। वह साधारण लोगों से भी परिवार उनके व्यापार सम्बन्धी सभी विषयों पर बातचीत किया करते थे। वे लोगों की कल्पना के अनुसार आडम्बर से कोसों दूर भगवा वस्त्रों मैं या जटा जूट धारी नहीं थे अपितु धोती और कम्बल लपेटे रहा करते थे।
भेष वस्त्र है सादा ऐसे जाने नहीं कोउ साधू जैसे।
ऐसी है प्रभु रहनि तुम्हारी वाणी कहो रहस्यमय भारी।।
स्मृति सुधा श्री वृन्दावन धाम