श्री कर्णवीर का व्यवहार बाबा से ऐसा था जैसे घर के वयोवृद्ध से बच्चों का होता है। आप बाबा से बेलिहाज बातें करते थे और वे आपको बहुत चाहते भी थे। सन् 1945 में जब आपके पिता जी की बदली आगरा से लखनऊ हो गई और आप लोग लखनऊ-कानपुर मार्ग में पुलिस क्वार्टर में रहने लगे तो सन् 1946 में एक दिन महाराज आप के घर पधारे और आप से बोले, “तू जा गोविन्द बल्लभ पन्त, मुख्यमंत्री को बुला ला। कहना, बाबा ने बुलाया है।” आपने कहा, “अब वे पहले वाले पन्त जी नहीं रहे, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं ! उनसे मिलना आसान काम है क्या ? ” बाबा बोले, “तू उसके घर में घुसते चले जाना और कह देना बाबा बुला रहे हैं।” आपने उत्तर दिया, “कहूँगा तो तब जब कोई कोठी में घुसने देगा। पकड़ कर बन्द कर दिया जाऊँगा और कोई जमानत भी नहीं होगी।” बाबा ने आपको समझाया, “तू चला जा तुझे कोई नहीं रोकेगा।” आप सदा उनसे उलझते रहते थे और इस समय भी अपनी बात पर अडे़ रहे और जाने को तैयार नहीं हुए। बाबा ने फिर पूछा, “नहीं जायेगा ?” आप ने कोई उत्तर नहीं दिया। बाबा बोले, “मत जा हम उसे यहीं बुला लेगें।” बात आयी और गई। बाबा इधर-उधर की बातें करते रहे और आधा घंटे के बाद बोले, “चल, सड़क पर टहलेंगे।” दोनों सड़क पर आ गए। लगभग दो-चार ही मिनट बीते होगें, सामने से पन्त जी की कार आती दिखाई पड़ी। पन्त जी बाबा को प्रणाम करने के लिए गाड़ी से उतरने लगे, परन्तु बाबा ने उन्हें उतरने नहीं दिया। थोड़ी बातचीत के बाद बाबा पन्त जी की गाड़ी में बैठ गए। आप पास में खड़े थे, आपकी ओर देख कर वे हँसते हुए बोले, “देख, बुला लिया, अब जाते हैं।”
अलौकिक यथार्थ से