सन् 1970 में ऋषिकेश में महाराज ने एक एकड़ भूमि वन विभाग, उत्तर प्रदेश से मंदिर और आश्रम हेतु ‘लीस’ में प्राप्त की थी। किन्तु बाबा के महाप्रयाण के बाद ग्यारह वर्षों तक यह भूमि अछूती पड़ी रही। महाराज जी का संकल्प पूर्ण तो होना ही था तब भक्तों ने इस भूमि की खोज आरम्भ की।
नवंबर 1983 में एक दिन श्री पीके चोपड़ा, जीएम, जल संस्थान देहरादून इस कार्य हेतु ऋषिकेश पहुँचे। वे एक ऐसे स्थान में पहुँचे जहाँ से दो रास्ते फटते थे। वे कुछ युवकों से इस संबंध में जानकारी प्राप्त करने की चेष्टा कर रहे थे, एकाएक एक कंम्बल ओढ़ा व्यक्ति आपकी सुन रहा था, आगे आया और उसने गन्तव्य की ओर आपको रास्ता बताया।
सुविधा के लिए आपने इसे अपनी गाड़ी में बिठा लिया। उस व्यक्ति ने बाबा की इस भूमि का आद्यान्त इतिहास चोपड़ा को बताया कि किस प्रकार यह भूमि उन्होंने वन विभाग से प्राप्त की और उस समय कौन एम.एल.ए और डी.एफ.ओ. उनके इस कार्य में सहायक हुए।
अन्त में उसने बताया कि वह भूमि इस समय एक डाक्टर के कब्जे में है जो उसमें खेती करता है। थोड़ी देर में गाड़ी ठिकाने आ गयी और उसने बाबा की भूमि उन्हें दिखायी। आप लोगों का ध्यान उस भूमि की ओर आकर्षित हो गया था, इतने में वह व्यक्ति ऐसा गायब हुआ कि दूर तक भी उस सीधी सड़क पर कहीं दिखायी नही दिया।
अपने उपकार के लिए धन्यवाद देने का मौका भी न देने वाला वह व्यक्ति बाबा के अलावा कौन हो सकता था ? अपने काम को पूरा कराने के लिए बाबा स्वयं इस रूप मे प्रकट हुए।
यह भूमि डाक्टर के कब्जे से छुड़ा ली गयी और यह विचार किया गया कि 10 जुलाई 1984 को वहाँ साधारण रूप से लघु हनुमानजी की स्थापना कर दी पर उस दिन बिना बुलाये बड़ा जन समुदाय वहाँ एकत्रित हो गया और अच्छे वेदपाठी पंडित भी बिना किसी निमंत्रण के स्वतः चले आये। इस प्रकार यह प्रतिष्ठा कार्य हर्ष और उल्लास के साथ पूर्ण हुआ। इसके लिए ट्रस्ट का आयोजन किया गया और तत्सम्बन्धी अनेक कार्य किये गये।
अप्रैल 1985 में यहाँ हनुमान जयन्ती बड़े समारोह से मनायी गयी। दूर – दूर से आये हुए तथा स्थानीय भक्तों ने हनुमान चालीसा और सुंदर काण्ड का सस्वर सामूहिक पाठ किया।
.जब पाठ का समापन हो रहा था, एक बड़ा बंदर प्रवेश द्वार से सीधे भीतर आया और जन समुदाय के बीच से जाते हुए उसने मंदिर की दाहिनी ओर परिक्रमा की प्रसाद की टोकरियों से एक मुट्ठी भरकर प्रसाद लिया और कंटीले तारों के बीच से उधर छलांगे मार कर
वह महाराज के निमित्त बनी कुटिया मेें प्रवेश कर गया।
इस कुटिया में केवल एक दरवाजा है और कोई खिड़की नही है। भक्तों की यही धारणा रही कि हनुमानजी प्रकट हो गये। कुछ समय तक सभी लोग कुटिया को चारों ओर से घेरे रहे। बहुत समय बाद कमरे के भीतर देखा तो वहां कोई बंदर न था। हनुमानजी अन्तर्ध्यान हो चुके थे। हनुमान के रूप में बाबा की ही यह लीला समझी गयी।
दैनिक पत्र ‘हिंदुस्तान’ 16 अप्रैल 1985 में इस समारोह का उल्लेख हुआ था। शीर्षक था|
.अलौकिक यथार्थ पुस्तक से