“ह्याँई बैठोंगो” नीबकरौरी बाबा का नीब करौरी गाँव

अतुलित बलधाम, दयानिधान, दीनों के दाता, सभी के प्रिय, संसार को एक नजर से देखने बाले, सिद्धों के सिद्ध, गुरुओं के गुरू, किसी के लिए महाराजजी, किसी के बाबा, किसी के भगवान, किसी के नारायण, किसी के हनुमान स्वरुप, किसी के अन्नदाता, सदा शिव एकादस रुद्रावतार बाबा नीब करौरी जी महाराज के चरणों मेंकोटि कोटि वंदन, नमन, प्रणाम…… वैसे तो हमारे महाराजजी की ख्याति इतनी है की हमें परिचय देने कीजरूरत नहीं, और हम इस लायक भी नहीं की कुछ भी अपने महाराजजी के बारे में उनकी प्रेरणा के बिना कह सकें| ये उनकी ही प्रेरणा है जो आज ये सब कर पा रहा हूँ, समुद्र में बूँद मात्र……… महाराज जी के वैसे तो १०८ देशों में आश्रम हैं पर जो सबसे  विख्यात आश्रम है उनमें कैची आश्रम भवाली नैनीताल उत्तराखण्ड, नीबकरौरी आश्रम फर्रुखाबाद उ.प्र., वृन्दावन आश्रम वृन्दावन, जन्मस्थल आश्रम अकबरपुर फिरोजाबाद उ.प्र., ताओस आश्रम यू.एस.ए. हैं | पर हम बात करना चाहते हैं सबसे महत्वपूर्ण आश्रम नीब करौरी धाम की जो नीब करौरी ग्राम जनपद फर्रुखाबाद उत्तरप्रदेश में स्थित है| कुछ कहने से पहले बाबा जी के इस ग्राम में आगमन पर एक दृष्टि डालते हैं- बाबा जी का जन्म अकबरपुर ग्राम में हुआ था लगभग 1900 ई० में 11 वर्ष में विवाह व 13 वर्ष की आयु में गृह त्याग,7 वर्ष तक गुजरात के मोरबी जिले के बावनियाँगाँव में एक वैष्णव आश्रम में साधना के बाद भारत भ्रमण दो या तीन वर्ष के अंतराल में गंगा स्नान हेतु टूंडला से फर्रुखाबाद जाने बाली गाड़ी पर एक लीला के सदृश मूर्तीरूप में हनुमान जी और शरीर रूप में महाराज जी मनसा पूर्ती हेतु सर्वमान्य हो गए| अपनी युवावस्था में महाराजजी गाँव वालों के साथ गुल्ली डंडा, लुका छुप्पी, सर्त लगाना कबड्डी आदि सारे खेल खेलते थे| जबमहाराजजी के साथ कोई मथुरा वृन्दावन या गंगा जी परचलने को कहता तो महाराजजी कहते तुम चलो हम वहीँ मिलेंगे| और महाराजजी मंदिर की गुफा में घुस जाते जाने वालों को महाराजजी वहीँ उपस्थित मिलते| कभी कभी महाराजजी ग्रामवाशियों को भ्रमण स्थान पर भी मिलते और मंदिर बाले उन्हें मंदिर में भी पाते थे दोनों में जिरह देख कर मन मौजी महाराजजी आनंद लेते| महाराज जी ने मंदिर प्रांगण में पक्का चबूतरा बनबाने के लिए एक वैश्य महाशय से कहा पहले उन्हों हाँ कर दी बाद में मुकर गए | अब प्रारम्भ हुआ बाबा जी का कौतुक, महाशय कीदूकान में अचानक आग लग गई| वैश्य जी महाराज जी से दौड़ते आये |महाराजजी बोले तुझसे हनुमान जी रुष्ट हो गए | फिर जब उन महाशय ने चबूतरे की हाँ की तो आग स्वयं बुझ गई और कोई नुकसान नहीं हुआ सिर्फ मिर्चें ही जली थी| मंदिर में पीने के पानी की समस्या थी |गाँव के ही निःसंतान वैश्य दम्पति ने अपना दुखडा रोया, महाराजजी ने उनसे कहा एक कुआं मंदिर में खुदबादो संतान हो जायेगी| मंदिर में एक कुआ खुदबादिया गया|उस दम्पति को कन्या हुई तो बाबा जी ने उन्हें धैर्य रखनेको कहा बाद में एक पुत्र हुआ जो आज रामसेवक गुप्ता नाम से ग्राम के निवासी है| पर उस कुएं का पानी खराहोने के कारण पीने लायक न था| बाबा जी ने कहा इसमें कुछ बोरे चीनी डाल दो वही किया गया कुछ बोरे चीनी डाल दी गई| भला ऐसा करने से क्या किसी कुएं का जल आजीवन मीठा रह सकता है | पर लीलाधर की लीला पानी हमेशा के लिए मीठा ही है| इस मंदिर में महाराजजी ने मेले का आयोजन वैशाख शुक्लपक्ष की त्रयोदशी को वार्षिक कराने लगे साथ ही वर्ष में एकमाह का हवन आयोजित होने लगा| इस मंदिर में आने बाले हर दुखी दरिद्री और याचक की इच्छाए पूरी हो जातीथी कई बार मृत और पागलो को भी महाराजजी ने सहीकर भेजा | मंदिर में महाराज जी का सेबक उन्ही व्दाराचुना हुआ गोपाल बहेलिया जो एक हरिजन था महारा जी के भोजन और दूध की व्यवस्था करता था| इस मंदिर मेमहाराज जी के सामने सभी समान थे चाहे कोई कुछ भीहो सभी को समान सम्मान और अधिकार रहे | बाबा जीगेडुआ नाम के कुत्ते को भी पाले थे जो शिव का भैरवस्वरूप था बाबा जी इस पर ही बैठ कर कभी कभी ग्रामभ्रमण करते थे | महाराज जी से समकालीन नीब करौरी ग्राम का ब्राह्मण वर्ग बहुत नाराज रहता था महाराजजी की सभी के लिए समान दृष्टि इन सभी के क्रोध का कारण थी| एक बार एक धनी व्यक्ति ब्राह्मणों को दान देने के लिए स्वर्ण आभूषण लाया जिसे महाराजजी ने बापस करा दिया फिर क्या था सभीमहाराजजी के विरोधी हो गए |आने बाले भक्तो को झूठ बोलकर महाराजजी के खिलाफ भडकाने लगे | एक बार एक धनीव्यक्ति भंडारे हेतु दान के लिए देशी घी लाया तो सभी ने उसे महाराजजी के खिलाफ भड़का दिया और घी बापस करा दिया| महाराजजी उस दिन गंगा जी स्नान करने गए थे जब बापस आये तो उन्हें पूरी घटना पता थी अतः मंदिर को एक सेबिका देवी जी को सौप कर ग्राम को छोड़ कर किलाघाट चले गए| परन्तु अपनी प्रथम कर्म भूमि नीब करौरी के नाम को अपने व्यक्तित्व, अपनी पहचान, अपने नाम का प्रतीक बनाकर अमर कर विश्व विख्यात कर दिया-स्वयं बाबा नीब करौरी बन कर| बाबा बीच बीच में भी यहाँ आते रहे पर गाँव बालों से छिपकर| जब महाराजजी कुछ समय बाद कानपुर, मेरठ, इलाहाबाद,लखनऊ, आदि जगहों पर भ्रमण करते रहे और उत्तराँचल तक ख्याति बड़ी तब ,महाराजजी का नाम बाबा नीब करौरी हो गया था| महाराजजी जब किसी अपने प्रिय को अपने स्थानों के बारे में बताते तो नीब करौरी का नाम जरूर लेते थे | श्री सिद्धी माँ से महाराजजी कहते थे “जब तू नीब करौरी जाए गी तो हजारों की भीड़ तेरे कदमों में प्रणाम करे गी|” महाराज जी माँ से हमेशा कहते थे “जहाँ तू रहेगी वहाँ आनंद रहेगा|” शरीर लीला के अंतिम समय में महाराज जी ने माँ से कहा “ माँ सारी दुनियां के सामने हंसता हुआ जाउंगा पर तेरे सामने रोता हुआ क्योकि तुने मेरी बहुत सेवा की है|” 1935 के बाद महाराजजी ने नीब करौरी धाम छोड़ दिया’, जब महाराज जी ने अपनी शरीर लीलाये समाप्त की तो माँ का ह्रदय नीब करौरी धाम की ओर खिचने लगा| माँ इस भूले बिसरे मंदिर का पुनरुद्धार करना चाहती थी,| सड़क के किनारे छोटे और जीर्ण मंदिर में शायद ही लोग जाते होंगे|
माँ नीम करौरी ग्राम में पहली बार १९७४ में जीवंती माँ और छोटी माँ व विनोद जोशी जी के साथ आयीं| आधीरात लगभग फर्रुखाबाद स्टेशन पर उतरीं और सुबह की प्रतीक्षा करती रहीं, आधी रात के बाद एक साधू आया जिसने उन्हें गाँव तक पहुचने का रास्ता बताया| जब माँ नीब करौरी गांव पहुची तो लोगो ने उन्हें घेर लिया | जिनमें से कुछ बृद्ध महाराजजी के समय के थे,वे उनके साथ खेले भी थे जब महाराजजी बालकपन की आयु में इस गाँव में आये थे | 1974 में जब माँ यहाँ आई तो कोई रहने खाने की व्यवस्था नहीं थी ; माँ को अधपकी रोटियाँ गेंहुँ, ज्वार मक्का-चना की औरवेस्वाद सब्जी मिलती थी| यहाँ माँ को नहाने और रहने खाने की समस्याओं का सामना करना पड़ा| न भोजन न प्रसाद न ही शौच-स्नान की समुचित व्यवस्था थी| हनुमान जी का विग्रह भी बिना चोले के काला पढ़ गया था | पहली बार विनोद जोशी जी ने हनुमान जी को भली प्रकार नहलाकर पोछकर चोला सिन्दूर की कमी की बजह से अबीर से चढाया था | पर माँ को बाबा जी की कही बातों से प्रेरणा मिल रही थी| जिस मंदिर को बाबा जी खाली बनाकर छोड़ गए थे और कहा थाकी “ह्याई बैठोंगो” उस मंदिर में शिवलिंग की स्थापना या शक्ति माँ की स्थापना के लिए गाँव बालों ने कहा| पर बाबा को तो वहीँ बैठना था| धीरे धीरे माँ के आने से सभी लोगो की हनुमान जी के प्रति निष्ठा बढती गई, हनुमान जी के सिन्दूरी चोले का नवीनीकरण होता रहा| जब माँ जाती तब देवी जी आश्रम की सेबिका को चमेली का तेल और सिन्दूर की व्यवस्था करके जाती थी| सबसे पहले माँ ने बाबा जी का वह कमरा खुलाया जिसमें बाबा जी बैठते थे, यह इतना छोटा था की इसमें सिर्फ कोई योगी ही धूनी जलाकर तपस्या कर सकता था या रह सकता था|
यह बाबा जी की प्रथम गुफा थी जो मंदिर के अंदर ही बाबा जी की कुटी के नीचे थी| बाबा जी ने जब मंदिर छोड़ा था तब एक छोटा सा मंदिर बनबाया था जिसमें किसी की स्थापना नहीं की गई थी| किसी ने पूछा बाबा यहाँ कौन बैठेगा, तब महाराज जी नें उत्तर दिया था “ हों बैठोंगो|” माँ के लगातार नीब करौरी धाम आने से और अथक प्रयास से महाराजजी की कथनी सत्य होती दिखी, माँ ने बाबा की घर घर कहाँनियां सुनाईं बाबा जी के फोटो बांटे माँ ने इस आश्रम को तीर्थ बनाने के लिए और बाबा जी के नाम की गरिमा के लिए बहुत त्याग किये माँ यहाँ महीनो रहकर भगवत गीता पाठ आदि कराती रहती थी भंडारे नियमित हो गए थे| श्री माँ के आगमन से पहले तो नजदीकी जिलों के लोग बाद में जल्द ही बहुत दूर दूर से लोग आना प्रारम्भ हो गए | बाबा जी व हनुमान जी की कृपा की ऐसी वर्षा हुई कि सभी के काम स्वतः बनने लगे | लोगो के कष्ट माँ स्वयं बाबा जी से प्रार्थना कर दूर कर देती| और सभी की मनोकामनाये मात्र माँगने से पूरी होने लगी| माँ ने कई मृत तुल्य व्यक्तियों को जीवन दान दिया| माँ हमेशा लोगो को बाबा के अलौकिक किस्से सुनाती मंदिर में भजन होते पाठ चलता तो कहीं कब्बालियाँ होती| अब सोया सा नीब करौरी ग्राम फिर जाग गया| फलस्वरूप मंदिर और बाबा जी के प्रति लोगो में सेवा का उत्साह जाग गया| तब मंदिर-क्षेत्रजिसे एक बृद्ध महिला ने बाबा की सेवा में समर्पित करदिया था उसके लिए नए नए सुझाब आने लगे| कुछ समय पश्चात 1980 से पहले लगभग श्री गंगादीन महाजन ने एक गुम्मद नुमा भवन बनबाया जिसे साधू सन्यासियों के रुकने को रखा गया| बाद में इसे भी मंदिर में बदलने की राय आई गांव बालों ने इसके प्रथम खंड में शंकर-पार्वती और व्दतीय में राम दरवार की स्थापना की बात कही| पर बाबा जी की “ह्याँ हौं बैठोंगो” की मनसा ने इस प्रस्ताव को दूसरा मोड दे दिया | वर्ष 1981 में इसी भवन की परिक्रमा में माँ के सानिध्य में भगवद सप्ताह संपन्न हुआ|  और इसी समय महाराजजी की प्रेरणा से महाराज जी केतत्व पीठ की स्थापना का भी सूत्रपात हुआ|
15फरवरी 1984 को माँ-महाराजजी व्दारा प्रेरित हो ग्वालियर के उद्योगपति, भक्त श्री सीताराम गुप्ता व्दारा भवन को नया स्वरुप दिया गया, और महाराजजी के संगमरमर के विग्रह की स्थापना की गई| “ह्याँ हौं बैठोंगो” इस बात के लगभग 60 साल बाद महाराजजी के इसी स्थान पर जिसमें महाराज जी के विग्रह की स्थापना माँ के व्दारा हुई| इस परम पावन कार्य में गुप्ता जी की बड़ी बहन जिन्हें सभी जीजी कहते थे, उनका और भाई अमरचंद का बड़ा सहयोग रहा| इस पुनीत अवसर पर हजारों लोगो ने भंडारे का प्रसाद पाया| बाबा जी के इस मंदिर को उनके तत्व पीठ का स्वरुप देने हेतु सिद्धी माँ की आज्ञा से श्री विनोद चन्द्र जोशी जी व्दारा वर्ष 1973 से संचित बाबा जी के फूलों का कलश बाबा जी के इस विग्रह के नीचे समाहित कर दिया गया| साथ ही हनुमान जी का मंदिर ,पुराने शंकर जी के मंदिर को भी नया रूप दे दिया गया| मंदिर को आश्रम का रूप देने के लिए माँ की प्रेरणा से मंदिर को ऊँची दीवार से घेर दिया गया और दो फाटक चढा दिए गए| जिसके अंदर आवासीय कमरों को भी बनबादिया गया| बाबा जी की सिद्ध गुफा जमीन के नीचे थी जिसमें दो कमरे एक बरामदा था हवन कुण्ड था| इस जगह के बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं थी उन्हें भी अंदाजा नहीं था जो बाबा जी के साथ खेला करते थे | माँ इस गुफा को 1976-77 से ढूंड रहीं थी पर ये माँ को 1988 में मिलपाई |माँ इस जगह को ढूंडते ढूंडते एक जगह खड़ी हो गई और आग्रह करने लगी की ये जगह खोदी जानी चाहिए | बस उसी जगह बाबा जी की कुटिया मिली जिसमे कमण्डल, चिमटा, विभूतियाँ और उपयोग की अन्य चीजें मिली जो माँ ने कैची आश्रम रखबादी | इस गुफा के निर्माण में लखनऊ के इंजीनियर  केहरसिंह जी श्री विनोद जोशी जी और माँ के साथ अनेको सहयोगी थे | गुफा पर माँ और जोशी जी ने किसी को काम पर नहीं रखा जोशी जी ने स्वयं इसमें बांस बांधे काम करने हेतु और इंजीनियर पत्नी ने ईंट पकड़ाई बाबा जी की प्रेरणा से ये कार्य भी संपन्न हो गया और व्दतीय गुफा को नया स्वरुप मिलगया जिसमे पक्षियों को रोकने के लिए जाली से बंद करा दिया गया| इस निर्माण से श्री माँ का सारा प्रयास सार्थक हो गया और नीम करौरी मंदिर धाम में बदल गया | अब 1984 से 15 फरवरी को प्रतिवर्ष भंडारा आयोजन होने लगा जिसमें माँ कई दिन पहले ही आकर व्यवस्था देखती थी| और भक्तो के कष्टों को हरने के उपाय बताती थीं| सभी की मनोकामनाये पूर्ण हो जाती और कष्ट स्वयं कट जाते थे| 1986 में पहली बार माँ बाबा जी के जन्म स्थान अकबरपुर गईं| जहां 2000 ई०. में मंदिर का निर्माण हुआ| नीबकरौरी धाम में माँ का आगमन 2005 तक नियमित रहा फिर धीरे धीरे माँ का आना कम होता चला गया | माँ ने आश्रम का संचालन स्थानीय लोगो को सौप दिया और खुद को दूर कर दिया बाबा जी की कृपा से आज भी सभी आश्रमो का संचालन बाबा जी स्वयं देखते हैं बस किसको अपनी प्रेरणा दे और कब तक उसे सौपे ये उनकी मर्जी है और यह सेबक ही अनुभव कर सकता है| उपरोक्तनीब करौरी धाम के इतिहास का संकलन अलग अलग किताबों से “अनंत कथामृत” और “सोई जानहि जेहि देहु जनाई” तथा “अलौकिक यथार्थ” से लिया गया है|और कुछ कही सुनी स्वयं लिखी है कृपा कर गलतियों को क्षमा करें|
राम राम

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