एक दिन चर्चलेन इलाहाबाद में सायंकाल महाराज का दरबार लगा था और रवि प्रकाश पाण्डे ‘राजीदा’ (लेखक) भी वहाँ उपस्थित थे। प्रयाग विश्वविद्यालय के एक प्रवक्ता ने बाबा से पूछा, “महाराज हमें भगवान के दर्शन कैसे हो सकते हैं ?” बाबा तुरंत बोले, “अन्धेरी रात में बिना रोशनी और हथियार के भगवान को खोजने जंगल में चला जा, दर्शन हो जायेंगे।” प्रवक्ता महोदय घबरा गए और बोले, “यह दुष्कर कार्य मुझसे नहीं हो पायेगा, कोई सरल साधन बताइये।” बाबा ने कहा, “मनुष्य बहुत स्वार्थी है, उसकी शक्ल भी मत देख, एकान्त में रह, तुझे दर्शन हो जायेंगे।” प्रवक्ता ने उत्तर दिया, “मुझे मनुष्यों के बीच में रहना पड़ता है, मैं अपने को कैसे छिपा सकता हूँ ? अतः कोई इससे भी सरल साधन बतायें।” बाबा बोले, “अच्छा, मनुष्यों के बीच रहते हुए किसी से बोलना मत, मौन हो जा।” प्रवक्ता ने अपनी परिस्थिति समझाते हुए कहा, “मेरा काम पढ़ाने का है, मैं मौन हो नहीं सकता।” बाबा ने सुझाव दिया कि कक्षा में पढ़ाते समय बोल लेना पर उसके बाद हर समय मौन रहना। इस पर वे बोले, “यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि मुझे विश्वविद्यालय में अपने से बड़े लोगों से परामर्श लेना पड़ता है।” अन्त में बाबा ने सरलतम उपाय बताते हुए कहा, “सबसे बोलना पर किसी से नमस्ते न करना और यदि कोई तुझे नमस्ते करें तो उसकी ओर मत देखना और अपनी राह पकड़ना।” प्रवक्ता ने अपनी कठिनाई बताई और कहा कि यह अशिष्टता होगी और लोगों की मेरे बारे में बुरी धारणा बन जायेगी। इस पर बाबा बोल उठे, “तो तू लोगों की धारणा ही बनाता रह, भगवान के दर्शन की इच्छा छोड़ दे।” उपस्थित सभी लोग इस बात पर हँस पड़े और महाराज मुस्कराते रहे।
अलौकिक यथार्थ से